मजदूर-किसान एकता के संदर्भ में हन्नान मौल्ला

भूमिका 

अक्टूबर क्रांति के बाद हमने यह सबक सीखा कि जिन देशों में पूंजीवाद देर से आया, उन देशों में नया उभरता पूंजीपति वर्ग सामंतवाद को नष्ट करके बुर्जुआ लोकतंत्र क्रांति को पूरा करने और बुर्जुआ लोकतंत्र की स्थापना करने में असमर्थ था –  जिस तरह से वह यह काम 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान करने में सक्षम था। क्योंकि नई स्थिति में इस वर्ग को यह डर था कि यदि सामंतवाद के संसाधनों और वर्चस्व पर हमला किया तो वह हमला वहीँ तक नहीं रुकेगा, आगे जाकर पूंजीवादी संसाधनों पर भी हमला हो सकता है। परिणामत: उभरते बुर्जुआ वर्ग ने उन देशों कीं सामंती प्रणाली के साथ समझौता कर लिया। इसका अर्थ है कि पूंजीवादी जनवादी क्रांति का जो एक विशेष काम या जिम्मेदारी- सामंती शोषण के चंगुल से किसानों को आज़ाद कराने- की थी वह मजदूर वर्ग पर आ गयी।  यद्यपि एक तथ्य यह भी था कि इन देशों में यह वर्ग छोटा था और देर से अस्तित्व में आया था।  इस तथ्य ने श्रमिक वर्ग के नेतृत्व वाले मजदूर-किसान गठबंधन की आवश्यकता को जन्म दिया। लेकिन यह गठबंधन केवल सामंतवाद को समाप्त करने और  पूंजीवादी जनवादी क्रांति को अंजाम देने पर ही रूक नहीं सकता , बल्कि इस क्रांति के चरण के पूरा होने के बाद उसे अबाध क्रांतिकारी प्रक्रिया के द्वारा समाजवादी क्रांति की ओर जाने का रास्ता खोलने का काम भी करना होगा।  भारत के क्रांतिकारियों ने इस सबक को आत्मसात किया और अपनी  सैद्धांतिक समझ को अमल में लाने का रास्ता अपनाया। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उन्होंने भारत के श्रमिक वर्ग और किसानों को अपने-अपने वर्गीय संगठनों में संगठित  करने का कार्यक्रम चलाया, जिससे देश में वर्ग संघर्ष मजबूत होगा और सामंती, पूंजीवादी विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के माध्यम से लोकतांत्रिक क्रांति का संभव होगी। यह एक त्रिआयामी  संघर्ष है जो  साम्राज्यवाद विरोधी  चेतना  को  विकसित करता  है और सभी कामकाजी लोगों के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है । कई दशकों से लगातार वर्गसंघर्ष, असंख्य बलिदान, सफलताओं और विफलताओं ने देश में लोकतांत्रिक आंदोलन का निर्माण किया है।   

इस मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर  भारत के श्रमिक  वर्ग ने अपनी राजनीतिक शक्ति का विकास किया है और देश में कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व किया   है। अंततः यही बाद में जनता की जनवादी क्रांति के लिए संघर्ष का नेतृत्व करेगा।

 

भारत की कम्युनिस्ट  पार्टी  (मार्क्सवादी)  का  दृष्टिकोण

 

सीपीआई (एम) की 1964 में हुयी 7वीं पार्टी कांग्रेस में अपनाए गए पार्टी कार्यक्रम के अनुच्छेद 100 में कहा गया है कि ; 

‘भारत के कामकाजी वर्ग और उसकी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट  पार्टी के नेतृत्व को छोड़कर न तो जनता के जनवादी मोर्चे का सफलतापूर्वक निर्माण किया जा सकता और न ही क्रांति सफल हो सकती है ।’’

 

अनुच्छेद 101 कहता है ;

‘‘जनता के जनवादी मोर्चे का आधार मजदूर वर्ग और किसानों का मजबूत गठबंधन है। यही गठबंधन राष्ट्रीय स्वतंत्रता की रक्षा करने में, दूरगामी प्रजातांत्रिक बदलाव लाने में और  चौतरफा सामाजिक प्रगति की आश्वस्ति में सबसे महत्वपूर्ण ताकत है।’’   

2000 में जब पार्टी का कार्यक्रम अद्यतन किया गया तो इन्ही अनुच्छेदों को धारा 7.5 और 7.6 में दोहराया गया। यह स्पष्ट करता है कि उपरोक्त वक्तव्य तब तक बुनियादीऔर अपरिवर्तनीय हैं जब तक कि पार्टी का लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता और लोगों की लोकतांत्रिक क्रांति पूरी नहीं हो जाती। 

 

बाद में हुयी सभी पार्टी कांग्रेसों के राजनीतिक प्रस्तावों और राज्य, जिला और  निचले स्तर के सम्मेलनों के प्रस्तावों  में भी एक मजबूत मजदूर-किसान गठबंधन को हासिल करने का लक्ष्य बहुत लगन से लिखा  गया है, लेकिन हकीकत में यह केवल  कागजों में सिद्धांत बन कर रह गया है ।

 

इस समझ का राजनैतिक विचारधारात्मक  आधार

 

मार्क्स-एंगेल्स के क्रांतिकारी सिद्धांत के बुनियादी सिद्धांतों में से एक मजदूर वर्ग के नेतृत्व में सामाजिक परिवर्तन के लिए शोषण की पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के ऐतिहासिक कार्य के लिये संघर्ष का निर्माण करना है। । इसी आधार मजदूर वर्ग के संघर्षों के दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के प्रश्न और उस कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में होने वाली समाजवादी क्रांति के सिद्धांत का विकास हुआ। 

 

लेकिन पूंजीवाद के असमान विकास से  एक तरफ कुछ थोड़े से विकसित पूंजीवादी देशों का जन्म हुआ जहां पर सामंतवाद का पूरी तरह से उन्मूलन, पूंजीवादी व्यवस्था की स्थापना और  उस नए क्रांतिकारी वर्ग का उद्भव हुआ जिसके नेतृत्व में ही पूंजीवाद का खात्मा तय है। दूसरी तरफ इसके साथ साथ दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में सामंतवाद जारी रहा और पूंजीवादी विकास भी शुरू हो गया। अब इस तरह विकसित पूंजीवादी देशों ने अपनी भौगोलिक सीमाओं से बाहर आकर पिछड़े राष्ट्रों का शोषण करके साम्राज्यवाद को जन्म दिया, वहीं सीमित विकास वाले कई पूंजीवादी देश थे जिन्होंने अपने साम्राज्यों का विस्तार करने की कोशिश की। अधिक विकसित देशों के पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शोषक-शासक वर्ग ने लगातार जारी पूंजीवादी शोषण के माध्यम से प्राप्त लूट का एक हिस्सा खर्च करके अपने ही कामगारों को कुछ लाभ देकर कामकाजी वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन को कमजोर करने की कोशिश की । लेकिन कम विकसित पूंजीवादी देशों में पूंजीपति शोषक वर्ग ने सामंती शोषकों के साथ समझौता किया और संयुक्त रूप से सामंती-पूंजीवादी शोषण का राज स्थापित किया। नतीजतन, इन सभी देशों में लोगों का तीव्रता से शोषण और दमन किया गया। एक तरफ इस नए,यद्यपि संख्या में कम, श्रमिक वर्ग को गहन शोषण का शिकार होना पड़ा दूसरी तरफ इस मिले जुले गठजोड़ के माध्यम से बहुसंख्यक किसानों का सामूहिक रूप से दमन और शोषण किया  गया। यही कारण है कि इन देशों में शोषित लोगों का संघर्ष तेज हुआ और इस शोषण के खिलाफ संघर्ष कर रहे शोषित श्रमिक वर्ग ने खुद को संगठित किया। इसी प्रकार, ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों और खेत मजदूरों जैसे शोषित लोग  इस संघर्ष में शामिल रहे थे । इन सभी देशों में रूस था पूंजीवादी दासता की बेड़ियों को तोड़ने के  क्रांतिकारी संघर्ष में सबसे आगे रहा था । यही वजह है कि किसानों और सैनिकों के सहयोग से श्रमिक वर्ग के नेतृत्व में रूस में पहली बार शोषण का सिलसिला टूट गया था। लोकतांत्रिक और समाजवादी क्रांति ने आखिरकार जीत हासिल की और दुनिया में पहले शोषण मुक्त समाज के गठन का मार्ग प्रशस्त  किया ।

 

इतिहास  की सीख – जनवादी  क्रांति  पर  सबक

 

पहली बार मार्क्सवाद की शिक्षाओं को लागू करते हुए फ्रांस के मजदूर वर्ग ने एक वर्गीय क्रांति के माध्यम से पेरिस में सत्ता पर कब्जा कर लिया और पेरिस कम्यून के नाम से समाजवादी व्यवस्था के भ्रूण का गठन किया। यह दुनिया का पहला मजदूर वर्ग का राज्य था । इस प्रकार शोषण मुक्त समाज के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई। लेकिन इस क्रान्ति से दहशत में आये दुनिया के पूंजीपतियों ने एक साथ आकर पेरिस कम्यून पर हमला करके उसे पराजित कर दिया । मजदूर वर्ग के उस शासन ने. जो केवल 70 दिनों तक रहा, दुनिया के मेहनतकशों के लिए कई  मूल्यवान सबक छोड़े  हैं । उनमें से एक यह है कि यद्यपि इस सीमित संख्या वाले मजदूर वर्ग ने सफल क्रांतियां तो की है लेकिन वे साम्राज्यवाद के हमले का सामना नहीं कर पाए क्योंकि वे उन किसानों का समर्थन जुटाने में असमर्थ रहे जो शोषितों के एक बड़े वर्ग का हिस्सा थे। यह दिखाता है कि इस तरह की क्रांति तभी सफल हो सकती है और एक समाजवादी समाज लंबे समय तक कायम रह सकता है जब सभी शोषित लोगों को एक साथ संगठित कर उस संघर्ष की ओर बढ़ा जाये जिसका नेतृत्व मजदूर वर्ग के हाथ में हो।

 

कामरेड लेनिन ने इसका एक दम सही क्रियान्वयन रूस की क्रांति में किया था। 1905 की क्रांति की विफलता के बाद उन्होंने बोल्शेविक पार्टी को बेहद पिछड़े और शोषित किसानों को संगठित करने का निर्देश दिया। इन किसानों के बच्चे जार की सेना के सैनिक थे और उनके बीच भारी अशांति थी । इसलिए उन्होंने उन्हें भी क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल करने का फैसला किया। नतीजतन, रूस मेंश्रमिक वर्ग के नेतृत्व में, बोल्शेविक क्रांति सफल रही, जिसमें सबसे बड़ी भागीदारी किसानों और सैनिकों की रही थी, और इस गठबंधन ने रूस में समाजवाद के निर्माण की प्रक्रिया को मजबूत किया।  

 

मजदूर-किसान  एकता  का क्रियान्वयन

 

कामरेड लेनिन के इस विचार की चर्चा ‘‘लोकतांत्रिक क्रांति में सामाजिक जनवाद की दो रणनीतियां’’ पुस्तक में की गई है। खासकर  रूसी क्रांति के बाद दुनिया के अन्य पिछड़े देशों में जनवादी क्रांतियों को क्रियान्वित करने के लिये इस सिद्धांत का प्रयोग अधिक आवश्यक हो गया,  क्योंकि रूसी क्रांति के बाद, दुनियां के सभी देशों में मजदूर वर्ग के राजनैतिक दलों का गठन हुआ, उन सभी दलों ने अपने-अपने देशों में वर्ग संघर्ष विकसित करने की दिशा में काम करना और जनवादी क्रांति के लक्ष्य को पूरा करने के लिए कार्यक्रम लेना शुरू कर दिया । लेकिन ये जनवादी क्रांतियां उन विकसित पूंजीवादी देशों की तरह विशुद्ध रूप से पूंजीवाद विरोधी नहीं हो सकतीं थीं। क्योंकि अविकसित देशों में पूंजीवाद और सामंतवाद दोनों ही अपने शोषणकारी रूपों में मौजूद हैं और उन देशों के पूंजीपति जनवादी क्रांति का विरोध करने के लिए सामंतवाद से समझौता कर लेते हैं। जनवादी क्रांति के इस रूप को जनता की जनवादी क्रांति के नाम से जाना जाता है। 

 

ये क्रांतियां अनिवार्य रूप से पूंजीवाद  विरोधी, सामंत विरोधी और लोकतांत्रिक हैं । मेहनतकश वर्ग का नेतृत्व इस क्रांति के लिए अपरिहार्य है, लेकिन इस मेहनतकश वर्ग की किसानों के साथ एकता इस क्रांति का वर्गीय आधार है। इसलिए मजदूर-किसान गठबंधन का निर्माण होना चाहिए क्योंकि यही मार्क्सवाद-लेनिनवाद का मूल सिद्धांत है। तीसरी दुनिया की सामाजिक व्यवस्था को बदलने के संघर्ष का पहला चरण मजदूर वर्ग के नेतृत्व में और मजदूर-किसान गठबंधन के माध्यम से  बुर्जुआ-लोकतांत्रिक क्रांति का होगा जिसे कम्युनिस्ट साहित्य में जनता की जनवादी क्रांति के नाम से जाना जाता है । चीनी क्रांति की शिक्षाओं ने इस सिद्धांत को अधिक सटीक रूप से स्थापित किया है । जनता की जनवादी क्रांति पूरी होने के बाद ही हमें समाजवादी क्रांति के माध्यम से समाजवाद की स्थापना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।

 

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने इस कार्यक्रम को अपनाया है। एकाधिकार पूंजीवाद, सामंतवाद और विदेशी पूंजी द्वारा शोषण को समाप्त करने के संघर्ष के माध्यम से ही भारत में जनता की जनवादी क्रांति होगी । मजदूर वर्ग का नेतृत्व उस क्रांति की सफलता की कुंजी होगी । पार्टी के कार्यक्रम की इस समझदारी का हवाला शुरू में दिया गया है।

 

देश के मजदूर वर्ग और किसानों का शोषण देश के सत्तारूढ़ और शोषक वर्गों द्वारा नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को अपनाए जाने के बाद से कई गुना बढ गया है । चूंकि वित्तीय पूंजी अब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी बन गई है, इसलिए इसकी शोषण करने की ताकत गुणात्मक रूप से बढ गयी है साथ ही शोषण के क्षेत्र का विस्तार भी हो गया है। नवउदारवादी नीतियां इसी ताकत और विस्तार की परिचायक हैं।

 

नवउदारवाद ने ग्रामीण भारत में पूंजी निर्माण की एक गहन प्रक्रिया शुरू कर दी  है। वहां,  कॉर्पोरेट पूंजी का वित्तीय प्रभुत्व और बहुराष्ट्रीय पूंजी का वर्चस्व हमारे पारंपरिक छोटे विनिर्माण क्षेत्र को कड़ी टक्कर दे रहा है। उस हमले में, हमारी किसान आधारित कृषि प्रणाली विकट स्थिति में आ गयी है । सरकार की नीति किसान आधारित कृषि को कारपोरेट आधारित कृषि में बदलना है। इन नीतियों ने पिछले तीन दशकों में किसानों के एक बड़े वर्ग को तबाह कर दिया है। इसी का नतीजा है कि चार लाख किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो चुके हैं। कृषि घाटे का काम बन गया है,  जिससे किसान अपनी ज़मीन खोकर खेती छोड़ने को और जिंदा रहने के लिये शहरों में प्रवासी मजदूर बनने के लिये मजबूर हो गए  हैं। खेत मजदूरों के लिये कोई काम नहीं है और वे साल में अधिकतर समय बेरोजगार रहते हैं। रोजगार गारंटी योजना में उन्हे साल भर में महज 25 से लेकर 40 दिनों का अधिकतम काम औसतन मिलता है। ग्रामीण गरीबी बद से बदतर हो रही है । किसानों को अपनी जमीनें कौड़ी के मोल बेचने के लिये मजबूर कर दिया गया हैं। अमीर कॉरपोरेट घराने धीरे-धीरे उस जमीन को कब्जाते जा रहे हैं। किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल रहा है जबकि उत्पादन की लागत बढ़ती जा रही है। सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) लगभग हर जगह लागत से कम हैं। उस पर भी यह तथाकथित एमएसपी केवल 6 प्रतिशत किसानों को मिलता है, 94 प्रतिशत को नहीं मिलता । अधिकतर किसानों को किसी प्रकार का संस्थागत या बैंक कर्ज नहीं मिलता है इसलिये वे अत्यधिक ब्याज दरों पर सूदखोरों से पैसा उधार लेने को मजबूर कर दिये जाते हैं। सरकार फसल नहीं खरीदती, इसलिए ज्यादातर  किसान अपनी फसल निजी व्यापारियों या दलालों को काफी कम दामों पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं। चूंकि बीमा व्यवस्था पुख्ता नहीं है इस कारण प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले फसलों के नुकसान का कोई मुआवजा नहीं है। इन बाधाओं और भयावह स्थितियों की वजह से हर साल बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि ग्रामीण भारत में किसानों, खेत मजदूरों और गैर-कृषि  मजदूरों की स्थितियां  भयावह हैं । कुल मिलाकर इस समय भारत को भयानक  कृषि संकट का सामना करना पड़ रहा  है ।

 

मजदूर वर्ग की हालत भी तेजी से खराब हो रही है। मोदी सरकार और उसका कठपुतली मीडिया हर मिनट जीडीपी विकास की बात कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में लोगों की आर्थिक हालत गिरती जा रही है। बेरोजगारों की संख्या 45 साल में अपने उच्चतम स्तर पर है और हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने का झूठा वादा मोदी का एक और ‘‘जुमला’’ साबित हुआ है !  विकास अब सबसे अधिक अनचाहा शब्द बन गया है जो विनाश तक जा कर रुकता है ।  रोजगार के बिना ‘‘विकास’’ दरअसल केवल कारपोरेट के मुनाफे में वृद्धि कर रहा है। यहां पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि एक ओर जहां नए बेरोजगारों के लिये कोई नौकरी नहीं है वहीं पर दूसरी ओर जो रोजगार शुदा हैं वे नौकरियां खो रहे हैं । स्थायी कर्मियों की संख्या घटी है जबकि अस्थायी या संविदा कर्मियों की संख्या बढ़ रही है। सरकारी एजेंसियों, उद्योगों और सिंचाई क्षेत्र को निजी कंपनियों को मिट्टी मोल बेचा जा रहा है।  कृषि, उद्योग, सिंचाई, रक्षा, लघु व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य जगहों पर विदेशी पूंजी की भारी आमद के कारण निजी पूंजी तेजी से बढ़ रही है । पूंजीपतियों के लिए अरबों रुपये  के कर्ज माफ किये जा रहे हेैं , कारपोरेटों को अरबों रूपयों से टैक्स मुक्त किया जा रहा हैं जिससे कारपोरेट पूंजी में असामान्य वृद्धि हुई है । सत्ता से गठजोड करते दरबारी पूंजीपतियों (क्रोनी कैपिटलिस्ट) को फायदा पहुंचाने और उनके मुनाफे को तेजी से बढ़ाने के लिए बनायी गयी सरकार की नीतियों के परिणाम स्वरूप मजदूर वर्ग का शोषण बढ़कर अब तक का सबसे ज्यादा  हो गया है । कर्ज का बोझ बढ़ रहा है जबकि आय कम हो रही है। सामाजिक सुरक्षा छीनी जा रही है। महिला कामगारों का शोषण असामान्य रूप से बढ़ रहा है। बाल श्रम का बढ़ाना निरंतर जारी है। रोजमर्रा की जरूरतों जैसे पेट्रोल, डीज़ल और कुकिंग गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं और लगातार बढ़ रही हैं । इस स्थिति में कोरोना वायरस महामारी का प्रकोप हुआ है। भारत में इस बीमारी से प्रभावित लोगों में तेजी से इजाफा हुआ  है। लेकिन मोदी सरकार ने बिना किसी तैयारी या योजना के रातोंरात राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन  की घोषणा कर दी और लोगों के लिए विशेष रूप से मेहनतकश लोगों के लिए बेतहाशा दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

 

यह बीमारी तेजी से फैली है और 3 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं – इसकी पहली लहार दस लाख से अधिक लोगों की मौत की खबर है, हालांकि सरकारी आंकड़ा केवल 4 लाख का है।  लॉकडाउन के परिणामस्वरूप, परिवहन के सभी साधनों को बंद कर दिया गया, जिससे लाखों कामगार अपने कार्यस्थलों में फंसे हुए थे जबकि कारखानों के बंद होने से उनपर आजीविका का संकट आ गया था । लाखों प्रवासी कामगारों को अकथनीय चुनौतियों का सामना करना पड़ा। लोगों का संकट अवर्णनीय हो गया क्योंकि सरकार ने भोजन, काम या आश्रय के लिए कोई प्रबंध या प्रावधान नहीं किया । बेरोजगारी और भूख चरम पर पहुंच गई। लोगों की क्रय शक्ति शून्य पर पहुंच गई थी और इसमें सरकार की घोर असफलता थी । भ्रामक और झूठे पैकेज की घोषणा कर उसने बड़े पूंजीपतियों को करोड़ों रुपये दिए जबकि आम आदमी को घोर बदहाली में डाल दिया । श्रमिक वर्ग की दुर्दशा चरम पर पहुंच गई। लाखों कर्मचारियों की नौकरी चली गई और वे बेरोजगार हो गए। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा चरमरा चुकी है। लेकिन सरकार का लगातार और बेशर्म झूठा प्रचार असहनीय होने की हद तक जारी है। अत्यधिक दुख और त्रास किसानों की जिंदगी को लील चुका है।  सही समय पर फसल की देखभाल नहीं कर पाने के कारण उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा है। सरकारी खरीद कम होने के कारण उनकी आय बुरी तरह सिकुड़ गई है। खेत मजदूरों के लिए कोई काम नहीं है-उनके बीच भुखमरी बढ़ गई है और बाल कुपोषण खतरे के स्तर तक पहुंच गया है। 

 

एक तरफ लोग इस बेरहम हमले का सामना कर रहे हैं दूसरी तरफ उनके संघर्ष करने के उनके अधिकारों में भी कटौती कर दी गई है । लोकतंत्र पर हमला हो रहा है । मजदूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों में भी कटौती कर दी गई है। सरकार ने सुधार के नाम पर मजदूर विरोधी कानून पारित किये है। जब आम आदमी लॉकडाउन के कारण वस्तुतः घर में नजरबंद था , तब सरकार एक के बाद एक जनविरोधी नीति लागू कर रही थी । एक तरफ इसने सभी श्रम कानूनों को निरस्त कर दिया और केवल चार ‘‘लेबर  कोड’’ बनाए, जिससे कंपनियों को धड़ल्ले से फायदा उठाने की इजाजत मिली।  दूसरी ओर, तीन किसान विरोधी काले अध्यादेशों को पहले थोप कर  और फिर उन्हें संसद में अवैध रूप से पारित करके किसानों के जीवन में अत्यधिक संकट ला दिया गया । ये कानून  किसानों के लिए ‘‘मौत का वारंट’’ थे । लाखों किसान इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन में शामिल हुए  सरकार ने किसानों से बातचीत से इनकार कर जबरन ‘‘काला क़ानून’’ लागू करने की कोशिश की । एक सर्वव्यापी, एकजुट, अहिंसक, और ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने फिलहाल  उसे इन कानूनों की वापसी करने के लिए मजबूर कर दिया है। लेकिन कारपोरेट नियंत्रित सरकार के इरादे अभी बदले नहीं हैं इसलिए ख़तरा अभी पूरी तरह टला नहीं है। 

 

आरएसएस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार देश में पूरी तरह से अलोकतांत्रिक, फासीवादी, सांप्रदायिक, दमनकारी शासन चला रही है।  निश्चित रूप से भारत के इतिहास में यह सबसे अधिक मजदूर विरोधी किसान विरोधी सरकार है। एक ओर यह सरकार नवउदारवादी नीतियों को आंख मूंद कर लागू कर रही है और दूसरी ओर, यह लोगों को इन नीतियों और सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के उनके लोकतांत्रिक अधिकार से वंचित करने के लिये लोकतंत्र विरोधी, यूएपीए जैसे असंवैधानिक कानूनों  को  ला रही है। मीडिया पूरी तरह से या तो खरीदा जा चुका है या डराया जा चुका है।  वह अत्यधिक भय या वित्तीय प्रलोभन के वश में है। प्रशासन में हर जगह भ्रष्टाचार बढ़ रहा है जबकि भारी कर्ज लेकर भ्रष्ट पूंजीपति अपराधी सहजता से देश से भाग रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में गंभीर कटौती की जा रही है । ‘‘असहमति’’ को ‘‘राष्ट्र विरोधी’’ करार दिया जा रहा है । संसद, संविधान, कानून, न्यायपालिका सभी को हथकड़ी लगा दी गई है। इसी के साथ घोर सांप्रदायिकता व्याप्त है। सभी अल्पसंख्यकों-मुस्लिमों, ईसाइयों, दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों पर धर्म और जाति के नाम पर हमला किया जा रहा है । सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करके ‘‘हिंदू राष्ट्र’’ की स्थापना का उद्देश्य लागू किया जा रहा है। आरएसएस, बजरंग दल और अन्य अतिवादी हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों जैसे सांप्रदायिक संगठन लोगों, मुख्य रूप से अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील विचारकों पर बेधड़क रूप से हमला कर रहे हैं। लोगों की हत्याएं हो रही हैं और गोरक्षा के नाम पर मॉब लिंचिंग धड़ल्ले से हो रही है। पुलिस और प्रशासन अपराधियों को संरक्षण दे रहा है। महिलाओं के खिलाफ भारी हिंसा फैलाई जा रही है। महिलाओं, विशेष रूप से हाशिये के परिवारों की निचली जाति की महिलाओं, के साथ बलात्कार एक रोजमर्रा की घटना बन गया है। नागरिकों के अधिकार छीनने की साजिश हो रही है। देश में एक लोकतंत्र विरोधी, तानाशाहीपूर्ण, सांप्रदायिक शासन स्थापित किया गया है – यह अघोषित आपातकाल है।

 

श्रमिक वर्ग हमले की जद में – एकता के लिए सही समय

 

पूरे देश में मेहनत करने वाले सभी लोग प्रभावित हैं – मजदूर, किसान और खेत मजदूर । इस हमले के मुख्य निशाने पर असंगठित मजदूर और महिला मजदूर हैं  । और इस हमले की तीव्रता नवउदारवादी नीतियों को आक्रामक तरीके से लागू करने के चलते कई गुना बढ़ गयी है। इसलिए मजदूरों, किसानों और खेत मजदूरों को अपनी पूरी शक्ति के साथ इस बहुआयामी हमले का विरोध करना ही होगा। मोटे तौर पर ये तीन ही मुख्य उत्पादक वर्ग हैं, जबकि अन्य उपभोक्ता हैं। जिस तरह नवउदारवाद ने उत्पादक वर्गों का शोषण किया है, उसी तरह यह अतिवादी उपभोक्तावाद को उकसाकर दूसरों के बीच गरीब विरोधी रवैया पैदा करने की कोशिश कर रहा है। सरकार ने राष्ट्रीय संपदा को बेरोकटोक रूप से लूटने के लिए देश के सबसे धनी एक प्रतिशत का रास्ता भी साफ कर दिया है। इन परिस्थितियों ने शोषित उत्पादक वर्गों को एकजुट करने के लिए एक माहौल बनाया है जिसमें मजदूर, किसानऔर खेत मजदूर शामिल हैं और इससे दबे-कुचलों और उत्पीड़कों के बीच विभाजन रेखा और स्पष्ट हो गई है। 

 

नवउदारवाद मजदूर वर्ग का कट्टर दुश्मन है और इसे लागू करने वाले भी मजदूर वर्ग के उतने ही कट्टर दुश्मन हैं। यह स्थिति वर्ग संघर्ष को तेज करने के लिए अनुकूल है। पूंजीवाद के शिकार लोगों  को एकजुट करना सबसे ज्यादा मुफीद होता है। एक ही दुश्मन के खिलाफ एक मंच पर आम सहयोगियों को संगठित करने का यह सही समय है। मजदूर किसान एकता के निर्माण के लिये मजदूरों, किसानों और खेत मजदूरों के संयुक्त संघर्ष के लिए यह सही समय है। जितनी जल्दी हम इसके महत्व को महसूस  करेंगे, उतनी ही जल्दी हम तीव्र वर्ग संघर्ष के माध्यम से मजदूर किसान गठबंधन का निर्माण कर पाएंगे ।

 

हम वास्तव में कहां पर हैं

 

यद्यपि सैद्धांतिक रूप से मजदूर-किसान गठबंधन की स्थापना की जाती है और हमारी पार्टी के कार्यक्रम और विभिन्न संकल्पों में बार-बार उल्लेख किया जाता है, लेकिन वास्तव में हम इस मोर्चे को बनाने के लिए पर्याप्त प्रयासों की कमी देखते हैं । हमारे पास इसके लिए कोई विशिष्ट ‘‘रोड मैप’’ नही है न ही हमारे पास कोई विशिष्ट योजना नहीं है । ऐसा लगता है कि एकता के लिए आव्हान का दोहराना  पर्याप्त है और  धीरज के साथ इस एकता को पुख्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। पार्टी के आह्वान पर मजदूरों और किसानों ने विभिन्न संघर्षों में हिस्सा लिया और वापस चले गए, लेकिन केवल इससे अपने आप दोनों वर्गों के बीच राजनीतिक, सांगठनिक और वैचारिक एकता का विकास नहीं हुआ। इसके लिए सचेत और ठोस प्रयास की जरूरत है । पार्टी के पास किसान और मजदूर मोर्चों के लिए उप समितियां हैं, वे कभी संयुक्त रूप से चर्चा करते हैं लेकिन दो उप-समितियों ने  मजदूर-किसान एकता के लिए संयुक्त रूप से कभी कोई विशेष कार्यक्रम नहीं लिया है । दोनों उप समितियों की संयुक्त बैठक होने के बाद भी इस संबंध में कोई संयुक्त योजना नहीं बनाई गई। मजदूर-किसान मोर्चा के नेता पार्टी की उच्च कमेटियों के सदस्य हैं और वे नियमित रूप से (जैसे सचिव मंडल) इन समितियों की बैठकों में भाग लेते हैं लेकिन इस बात के ज्यादा सबूत नहीं हैं कि इन दोनों मोर्चों के नेताओं ने गहराई से इस मुद्दे पर कोई विश्लेषण किया है या विचार-विमर्श किया  है। ऐसी कोई संयुक्त योजना मौजूद नहीं है, न तो केंद्रीय स्तर पर और न ही राज्य स्तर पर। इसलिए, वास्तव में मजदूर-किसान  गठबंधन लंबे समय से केवल दस्तावेजों में ही रह गया है। पार्टी की पहल की कमी को केवल इसलिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि संयुक्त संघर्ष के निर्माण के लिए इन दो वर्गीय संगठनों के नेतृत्व ने कभी कोई प्रयास किया हो इसका कोई उदाहरण नहीं है। हालांकि यह भी सच है कि  सीआईटीयू तमिलनाडु ने राज्य में खेत मजदूर संगठन के निर्माण में मदद के लिए धन जुटाया  है, लेकिन हमें नहीं पता कि  दोनों  संगठनों ने मजदूर-किसान संयुक्त संघर्ष शुरू करने के लिए कोई  संयुक्त कार्यक्रम शुरू किया है या नहीं । दूसरे शब्दों में, जबकि  मोर्चा के नेता समय-समय पर एक साथ बैठते हैं, वर्गीय एकता मजबूत होना अभी बाकी है।  । जब नेता अपना अनुसरण करने वाले लोगों को एक संयुक्त  कार्यक्रम में लाते हैं, वे लोग एक-दूसरे से परिचित होते हैं, तभी दोनों वर्गों के बीच वास्तविक एकता होगी।  मार्क्सवादी दर्शन के माध्यम से एक दूसरे की समस्याओं के आपसी संबंध को पहचानना और एक दूसरे को जानने के लिये आगे आना ही एकता का मार्ग प्रशस्त कर सकता है । अन्यथा, वे वर्ग अपनी ही समस्याओं से घिरे हुए हैं, वे दूसरों की समस्याओं की परवाह नहीं करते हैं – कोई पारस्परिक वर्गीय समझ भी नहीं है मानो कि वे दो अलग अलग द्वीपों पर रहने वाले हैं – वे कभी-कभार मिलते हैं लेकिन वर्गीय एकता तो छोड़िये  आपस में कोई दोस्ती भी नहीं है। 

 

इस अलगाव को समझना – इसे दूर करने के प्रयास और सुझाव

 

इस मामले में किये गए कुछ प्रयासों के कुछ सकारात्मक अनुभव हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों में किसान सभा, सीआईटीयू और खेत  मजदूर यूनियन के केंद्रीय नेताओं ने इस मुद्दे पर चर्चा शुरू कर दी है और आरंभिक स्तर पर शुरुआत की कुछ दौर की चर्चाओं के बाद वे इस बात पर सहमत हुए कि हमारे मजदूरों और किसानों को वर्गीय संगठनों के रूप में एक साथ लाने के प्रयास किए जाने चाहिए। यह आगे की ओर का पहला कदम हो सकता है । इन तीन बुनियादी शोषित वर्गों को कैसे एक साथ लाया जा सकता है, उनके बीच मजबूत एकता बनाने के लिए किस तरह के संयुक्त कार्यक्रमों को किया जा सकता है । इन तीनों वर्गों के संगठनों के नेताओं की बैठक लगभग नियमित रूप से होती रही है। बहुत चर्चा के बाद एक  विशिष्ट कार्यक्रम अपनाया गया। देश का पहला ‘‘भारत बंद’’ 1982 में 19 जनवरी को हुआ था। इस बंद में भाग लेने के दौरान 10 साथियों की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में गोलीबारी हुई, जिसमें चार खेत मजदूरों, तीन किसानों और तीन मजदूर साथियों की मौत हो गई । इस दिन शोषित वर्ग के दस साथी एक साथ शहीद हुए थे-और उनके माध्यम से देश ने तीनों वर्गों के संयुक्त बलिदान को देखा । इस दिन को तीनों संगठनों के संयुक्त आंदोलन के आधार के रूप में लिया जाता है। पांच साल  पहले,  सीटू,किसान सभा और खेत मजदूर यूनियन ने संयुक्त रूप से 19 जनवरी को मेहनतकश वर्ग की एकता के दिन के तौर पर मनाने का फैसला किया । इस  फैसले की सूचना सभी राज्यों के तीनों वर्गीय संगठनों को संयुक्त परिपत्र के जरिए दी गई। इसके साथ ही तीनों संगठनों के महासचिवों ने संयुक्त पत्र लिखकर सभी राज्यों के तीनों संगठनों के सचिवों से इस संयुक्त कार्यक्रम को अंजाम देने का अनुरोध किया था। राज्य  पार्टी के समाचार पत्रों  (दैनिक /साप्ताहिक/पाक्षिक आदि ) के माध्यम से  कार्यकर्ताओं  को इसके लिए जागरूक किया जा सकता है ताकि एक साथ काम करने की आवश्यकता को महसूस  किया जा सके। यह पहला मौका था जब इन तीनों वर्गों को शामिल करते हुए पूरे देश के मेहनतकश लोगों को एक साथ आकर अपना स्वतंत्र कार्यक्रम चलाने का निर्देश दिया गया। हम देखते हैं कि कई राज्यों ने इस कार्यक्रम को पहले ही साल में लागू कर दिया – हालांकि यह उतना सफल नहीं था जितना उम्मीद की जा रही थी। दूसरे वर्ष इस दिन को सफलतापूर्वक मनाने के लिए परिपत्र, संयुक्त पत्र, पार्टी पत्रिकाएं आदि का उपयोग किया गया और 19 जनवरी के कार्यक्रम को उस वर्ष कई नए स्थानों  पर भी  मनाया गया। तीसरे वर्ष में कई और राज्यों ने भी इसे मनाया । रिपोर्ट बताती है कि राज्य के नेताओं ने इस कार्यक्रम को महत्व देना शुरू कर दिया है । यहां तक कि जिलों ने भी इसे मनाने में पहल की है। इसके बाद केंद्रीय नेतृत्व ने नियमित रूप से संभावनाएं तलाशी और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, बिजली कर्मियों आदि के मुद्दे पर संयुक्त आंदोलन का कार्यक्रम दिया, जिसे आंशिक रूप से क्रियान्वित किया गया। ऐसे  में कहा जा सकता है कि इन तीनों वर्गों के संगठनों को एक साथ प्रदेश स्तर पर लाने का प्रयास कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करता है। एक-दूसरे को जानने और एक-दूसरे के करीब आने की इच्छा रहती है। लेकिन जिस तरह की सक्रिय कोशिश की जरूरत है, कई राज्यों में उस पर ध्यान नहीं दिया गया है। परिपत्र या पत्रों के माध्यम से ही नहीं केंद्रीय नेतृत्व ने राज्यों का दौरा कर प्रदेश नेतृत्व को इसके महत्व और क्रांतिकारी महत्व पर जोर देने की कोशिश की है। हमारा अब तक का अनुभव  सकारात्मक है।

 

नतीजा यह निकला कि बाद में अधिक व्यापक संयुक्त आंदोलन में मजदूरों, किसानों और खेत मजदूरों को लामबंद करने की योजना बनाई गई । अखिल भारतीय किसान सभा ने कृषि संकट के बारे में जागरूकता के लिए देशभर के किसानों से संपर्क कर मांग पत्र पर हस्ताक्षर एकत्र करने का  निर्णय लिया  है। यह  निर्णय लिया  गया कि 9 अगस्त के ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के दिन संयुक्त मोर्चा ‘‘नरेंद्र  मोदी  गद्दी छोडो’’ के नारे के साथ जुझारू  ‘‘जेल  भरो ’’आंदोलन  की शुरुआत करेगा। देश एक घातक कोरोना वायरस महामारी की चपेट में था , लेकिन हमने आव्हान किया कि कड़ाई से कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुये अपनी मांगों के समर्थन में सड़कों पर उतरें। इस देश को तबाही के कगार पर ले जाते हुये मोदी की आम जनता से अपेक्षा है कि जनता अपने घरों में कैद रहे लेकिन हम ऐसा होने नहीं देंगे। इसीलिये किसान सभा ने देश को बेचने की इन साजिशो के खिलाफ यह आव्हान  किया। सीआईटीयू ने इस आंदोलन का समर्थन किया और सक्रिय रूप से इसकी भागीदारी की घोषणा की । सीआईटीयू ने फिर 5  सितंबर को दिल्ली में जन रैली आयोजित करने का निर्णय लिया और अखिल भारतीय किसान सभा और अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन ने रैली में अपनी भागीदारी की घोषणा की और इसे मजदूर किसान संघर्ष रैली के रूप में आयोजित करने का निर्णय लिया।  हम देखते हैं कि इन संयुक्त निर्णयों ने जबरदस्त उत्साह पैदा किया है । इस एक आव्हान के जवाब में अपेक्षा से दस गुना अधिक मजदूर और किसान सड़कों पर आये। हम केंद्रीय संगठनों की संयुक्त बैठकों में  असाधारण उत्साह देखते हैं । एक ही उद्देश्य को लेकर मजदूरों , किसानों और खेत मजदूरों को एक ही स्थान पर इकट्ठा करना इसके पहले नहीं देखा गया था।

 

तैयारी के दौरान और आंदोलन के अंत तक इसमें उत्साह के साथ हुयी जनभागीदारी इन निर्णयों की उपयोगिता और सत्यता को साबित करता है । इन  फैसलों के बाद तीनों वर्ग संगठनों के अखिल भारतीय नेतृत्व ने बार-बार और संयुक्त रूप से बैठक की। प्रत्येक  योजना विस्तार के साथ बनाई और एक संयुक्त क्रियान्वयन समिति का गठन किया। इस कार्यक्रम को जमीनी स्तर पर सफल बनाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने नियमित रूप से इन तीनों संगठनों के प्रदेश नेतृत्व को सचेत किया।  हालांकि कई राज्यों ने पूरे दिल से इस संयुक्त कार्यवाहियों में हिस्सेदारी की लेकिन कई राज्यों में तीनों संगठनों  के नेतृत्व ने संयुक्त बैठक नहीं की।  यह अत्यधिक संगठनात्मक लापरवाही और इस आंदोलन के क्रांतिकारी महत्व को समझने में असमर्थता की ओर इशारा करता है । इसलिए, इन कमजोरियों के विरुद्ध लगातार लड़ते हुए मजदूरों और किसानों के संगठनों के नेतृत्व को एक संयुक्त नेतृत्व का निर्माण करना चाहिए और वास्तव में कामगारों और किसानों को एक लक्ष्य की दिशा में एकजुट होने  के लिए प्रोत्साहित  करना चाहिए ताकि वे कामगार-किसान गठबंधन की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा सकें । अभी हाल फिलहाल, हम इस एकता को मार्क्सवाद के उस क्रांतिकारी ‘‘मजदूर-किसान गठबंधन’’ के रूप में नहीं मानते हैं, जो एक दिन विकसित होगा और एक क्रांतिकारी ‘‘वाम जनवादी मोर्चे’’ की ओर ले जाएगा। लेकिन  हमें लगता है कि हमारा यह प्रयास मुख्य रूप से उस क्रांतिकारी वर्ग के गठबंधन के निर्माण में मददगार साबित होगा। इसलिए, इस मामले में, मजदूर-किसान-खेत मजदूर नेतृत्व को आपसी समझ, आत्मीयता, विश्वास बढाने के लिये और निरंतर एकीकृत कार्रवाई के लिए अपनी सभी कमजोरियों के खिलाफ लगातार प्रयास करना चाहिए, ताकि मजदूरों और किसानों को उनके गठबंधन की नींव को मजबूत करने के लिए प्रेरित किया जा सके। धीरे-धीरे एकता की इस भावना को गांव और ब्रांच स्तर तक ले जाया जाना चाहिए ताकि वास्तविकता में मजदूर, किसान और खेत मजदूर साथी एक दूसरे का सम्मान कर सकें, एक दूसरे की मांगों, समस्याओं, काम के तरीकों को जान सकें और जनता की जनवादी क्रांति के मुख्य मोर्चे के निर्माण में वर्गीय सौहार्द की आवश्यकता की प्रेरणा और महत्वपूर्ण सबक इकट्ठा कर सकें ।

 

इस संदर्भ में ध्यान रखने वाली एक बात यह है कि हमारे प्रयासों से मेहनतकश लोगों की अधिक से अधिक एकता बनाने में मदद मिलेगी । हमें इस प्रयास में अन्य सभी शोषित वर्गों के लोगों को धीरज से शामिल करने की जरूरत  है । महिलाओं, छात्रों, युवाओं, कर्मचारियों, शिक्षकों, छोटे और मध्यम व्यवसायियों, छोटे पैमाने के उत्पादकों और दलितों, आदिवासियों – सहित समाज के सभी वर्ग  लगातार शोषण से दबे हुए हैं। वे अपनी समस्याओं के खिलाफ अपने अपने झंडे तले संघर्ष कर रहे हैं। ये सभी संघर्ष लोकतांत्रिक आंदोलन और वर्ग संघर्ष का अहम हिस्सा हैं। यदि और केवल यदि इन वर्गों के समग्र आंदोलन को मजदूरों और किसानों के संघर्ष के साथ जोडा जाये तभी एक व्यापक वाम लोकतांत्रिक मोर्चे को  मजबूत किया जा सकेगा ।

 

हमारा अनुभव

 

उपरोक्त प्रयासों से उल्लेखनीय सफलता मिली है । भारत के स्वतंत्रता के बाद के इतिहास में पहले कभी भी मजदूरों , किसानों और खेत मजदूरों की इतनी व्यापक एकता नहीं रही है । इस बार 407 जिलों की ( देश के कुल 720 जिलों में से) 631 जेलों में 5  लाख से अधिक मजदूरों, किसानों और कृषि मजदूरों ने ‘‘जेल  भरो’’ आंदोलन में हिस्सा लिया है। पहले अधिक से अधिक 200 से 250 जिलों में ही हमारे कार्यक्रम प्रभावी हुआ करते थे। अब हजारों मेहनतकश लोगों ने हाथों में लाल झंडे लेकर पुलिस बैरिकेड तोड़े हैं और जेलों में जाने के लिए खुद को प्रस्तुत  किया है। यह अभूतपूर्व संघर्ष है। शोषित जनता के वे तीन वर्ग कभी भी इस तरह के उत्साह में एक साथ नहीं आए हैं और बराबरी से पूरे देश में इस संघर्ष में भाग लिया है। इसके अलावा इस आंदोलन में युवाओं की लड़ाकू भागीदारी अहम रही और कामकाजी महिलाओं की भी व्यापक लड़ाकू भागीदारी ने इस संघर्ष को एक नया आयाम दिया है। इसके साथ ही ‘‘जेल भरो’’, ‘‘दिल्ली  चलो’’ के सामूहिक नारों ने आंदोलनकारियों के उत्साह का स्तर बढ़ा दिया है।  

 

यह 5 सितंबर को संसद के सामने बड़े पैमाने पर कामगारों, किसानों और खेत मजदूरों की ‘‘दिल्ली  चलो’’ रैली में परिलक्षित हुआ था, जो जेल भरो आंदोलन के सिर्फ तीन सप्ताह  बाद हुयी थी । दिल्ली  ने इतने लाल झंडे कभी नहीं  देखे। देश भर में इस संघर्ष के लिए बड़े पैमाने पर संयुक्त तैयारी की गई थी। कामरेडों ने दो महीने पहले से भी दिल्ली में रहने के लिए ट्रेन टिकट, बसें बुक की और कई ने व्यवस्था की । क्षेत्र में श्रमिकों,  किसानों  और  कृषि  श्रमिकों  की  योजना बनाई। इस संयुक्त संघर्ष का सार यह था कि उन्होंने साथ में आकर एक-दूसरे की मदद की और एक साथ दिल्ली आए। संघर्ष के बीच उनके बीच संबंध और मजबूत हो गए हैं। मेहनतकश लोगों का दिल्ली में स्वागत करने के लिए स्वागत समिति ने व्यापक तैयारी की। लेकिन लगातार 7 दिनों तक मूसलाधार बारिश के कारण काफी समस्या हुई। रामलीला मैदान का एक बड़ा हिस्सा  जलमग्न हो गया- सभी टेंट भी जलमग्न हो गए। शहर के छात्र-युवा-महिला स्वयंसेवकों की एक कड़ी  मेहनत और असाधारण समर्पण के चलते कुछ  व्यवस्था  हो पाई। लेकिन बारिश नहीं रुकी। कामरेड 2 सितंबर से आना शुरू हो गए थे और यह सामूहिक आमद 5 सितंबर की सुबह तक नहीं रुकी थी । जुलूस पांच सितंबर की सुबह संसद की ओर रामलीला मैदान से रवाना हुआ। भारी बारिश के बीच लाल ज्वार ने संसद को टक्कर दी, जो प्रकृति के प्रकोप से पूरी तरह बेपरवाह था । अगर यह सब नज़ारा अपनी आंखों से नहीं देखा होता तो एक आम इन्सान के धीरज पर विश्वास करना मुश्किल होता । और इसके पीछे असाधारण प्रेरणा का स्रोत था मजदूर-किसान मित्रता का संदेश।  इतनी तकलीफों के बीच मैंने एक भी साथी की शिकायत नहीं सुनी। मीडिया वालों ने कहा कि उन्होंने कभी ऐसी रैली नहीं देखी थी। मीडिया हमें अक्सर नजरअंदाज करता था लेकिन इस बार किसी ने इस ‘‘महारैली’’ को नजरअंदाज करने की हिम्मत नही ंकी। सभी अखबारों ,टी वी चैनलों और सोशल मीडिया ने इस घटना को व्यापक रूप से कवर किया।

 

भारत के इतिहास में यह पहला मौका है जब मजदूरों, किसानों और खेत मजदूरों का एक स्वतंत्र संयुक्त कार्यक्रम हुआ। इससे पहले सभी संगठनों ने अपनी-अपनी अलग रैलियां कीं थीं। लेकिन यह संयुक्त आंदोलन अभूतपूर्व, असाधारण और ऐतिहासिक है। मजदूर किसान एकता की दिशा में यह पहला कदम है। गरीब लोगों की एकता बनाने की यह पुरजोर तैयारी है। इसी आधार पर हमें भविष्य के सामाजिक बदलाव की लड़ाई में अपनी ताकत को मजबूत करनी चाहिए। जिस तरह तीनों वर्गीय संगठनों ने इस संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसी तरह अन्य सभी लोकतांत्रिक संगठनों को इस प्रयास से प्रेरणा मिली है। इसके चलते मध्यम वर्ग,  छात्र, युवा और महिलाएं भी भारी उत्साह के साथ रैली में शामिल हुए।  भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की 22 वीं कांग्रेस ने इस प्रयास का स्वागत किया है और इसे और मजबूत करने के लिए एक व्यापक मोर्चे ‘‘पीपुल्स यूनिटी, पीपुल्स राइट्स मूवमेंट’’ (जन एकता जन अधिकार आंदोलन- जेजा) के गठन का समर्थन किया है। पार्टी की केंद्रीय समिति ने पूरी पार्टी से इस आंदोलन को सफल बनाने का आह्वान किया है। यह ऐतिहासिक उपलब्धि सभी वर्गों के सामूहिक प्रयासों से संभव हुई है। इसके आधार पर मजदूर-किसान गठबंधन बनाने की तैयारी करनी होगी। और यह पार्टी के सभी स्तरों के नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वह पार्टी के हर कार्यकर्ता तक इस समझ को पहुंचाये। केंद्रीय नेतृत्व पूरी समझदारी के साथ इस काम में शामिल है। अब सभी राज्यों में, सभी जिलों में, सभी क्षेत्रों में और सभी ब्रांचों में इन तीनों संगठनों के नेतृत्व को एक साथ काम करने का प्रयास  करना  होगा। हमें अतीत की सभी अनिच्छा, कमजोरी, आपसी दूरी और अहंकार को दूर  करना होगा और आपसी विश्वास और सहयोग की भावना के साथ काम करना होगा और सीआईटीयू, किसान सभा और खेत मजदूर यूनियन के नेतृत्व को इस कार्य के लिए प्रतिबद्ध होना होगा । पार्टी को भी इस प्रयास में मदद करने के लिए भरसक प्रयास करना चाहिए ताकि हम पार्टी कार्यक्रम के निर्देशानुसार कार्यकर्ता-किसान गठबंधन के निर्माण में शीघ्रता से शामिल हो सके ।

 

मैं इस प्रयास की हालिया प्रगति के बारे में बात करके इस विषय को समाप्त करूंगा । पिछले कुछ वर्षों में इन तीन वर्गीय संगठनों के केंद्रीय नेतृत्व ने कई संयुक्त कार्यक्रम शुरू किए हैं। खासकर प्रदेश और जिला स्तर के नेतृत्व को इस कार्य में अधिक सक्रिय बनाने में काफी सफलता मिली है। पूर्व में मजदूर वर्ग की ओर से सरकार की मजदूर विरोधी नीति के खिलाफ देश भर में मजदूर  हड़तालें की गई हैं और इनमें से प्रत्येक हड़ताल में किसान सभा और खेत मजदूर यूनियन ने न केवल समर्थन किया है बल्कि स्वयं ग्रामीण भारत बंद का आह्वान किया है जिससे देश भर में उन संघर्षों का विस्तार हो रहा है। नतीजतन, संयुक्त  कार्यक्रमों और संघर्षों की निरंतरता बरकरार रही है और हमारी एकता मजबूत हो गई है। मोदी सरकार का दूसरा चरण शुरू हो रहा है। हमने  संयुक्त आंदोलन का  कार्यक्रम चलाया है – औद्योगिक हड़ताल और ग्रामीण बंद का सफल आयोजन किया गया है  लेकिन किसान विरोधी सरकार की नीतियों में फिर भी तेजी आई है। सात दशकों में श्रमिक वर्ग के अनगिनत संघर्षों का परिणाम – संघर्षों से अर्जित 44 श्रम  कानून – कारपोरेट पूंजीपतियों के हित में समाप्त कर दिए गए हैं और 4 श्रम संहिताएं लागू की गई हैं । उनके काम करने के अधिकार,  यूनियन बनाने का अधिकार,  आठ घंटे के काम  का अधिकार,  स्थायी नौकरी का अधिकार, छुट्टी लेने का अधिकार  और  बोनस का अधिकार, भविष्य निधि और पेंशन आदि में कटौती की गई है या पूरी तरह से रद्द कर दिया गया है । इसके साथ  ही नियोक्ताओं को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे जब चाहें कामगारों को नौकरी से निकाल  दें, कारखानों को बंद करें, उनकी मजदूरी या वित्तीय लाभ छीन लें, स्थायी कामगारों को न रखें या स्थायी और नियमित कामो में ठेका मजदूरों की संख्या में वृद्धि करते रहें । इसलिए बेहतर होगा  कि उन 4 श्रम संहिताओं को ‘‘श्रम’’ संहिताएं कहने के बजाय ‘‘कंपनी’’ संहितायें कहा जाये। यह सब   नवउदारवादी नीतियों और कारपोरेट पूंजी के हाथ में लगाम  देने के प्रयत्नों का एक आक्रामक उदाहरण है। ट्रेड यूनियन – दस  केंद्रीय ट्रेड यूनियनों का संयुक्त मोर्चा – इसके खिलाफ लड़ रहे हैं और किसान सभा और खेत मजदूर यूनियन उनके इस संघर्ष का पूरी तरह से समर्थन कर रहे हैं और किसानों को अपनी तरफ से भी इन संहिताओं के खिलाफ संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं । दूसरी ओर, भयानक रूप से मारक महामारी मे लगे लॉकडाउन  का फायदा उठाते हुए मोदी सरकार ने रात के अंधेरे में तीन किसान विरोधी काले अध्यादेश जारी कर किसानों की मौत की घंटी बजा दी है। बाद में इन काले अध्यादेशों को अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक तरीके से संसद में जबरन पारित किया गया । अखिल भारतीय  किसान सभा पहले दिन से ही इन किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ संघर्ष करती रही । सबसे  पहले, एआईकेएस ने काले अध्यादेशों की प्रतियां जलाने का आह्वान किया  (विधेयकों को संसद में लाने से पहले, मोदी सरकार ने अनुचित जल्दबाजी में,  इन कानूनों को 3 अध्यादेशों के रूप में प्रख्यापित किया था), और किसानों ने हजारों स्थानों पर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन सरकार ने किसी विरोध या याचिका को नहीं सुना और इन कानूनों को जबरन लागू करना शुरू कर दिया । इन कानूनों का उद्देश्य कृषि का व्यवसायीकरण करना है, अर्थात हमारे देश में किसान आधारित कृषि प्रणाली को खतम करके कॉरपोरेट आधारित कृषि प्रणाली लाना है। नतीजतन, किसान धीरे-धीरे कृषि से दूर हो जाएगा और  अडानी और अंबानी जैसे कारपोरेट घराने कृषि को पकड़ लेंगे।  किसान या तो अपनी ही जमीन गंवाने को मजबूर  होगा या फिर अपनी ही जमीन पर गुलाम बन जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चे की अगुआई में लड़ी गयी असाधारण कुर्बानियों वाले किसान आंदोलन ने इन तीन कानूनों को वापस लेने के लिए मोदी सरकार को विवश कर दिया।  लेकिन सरकार के बेईमान इरादे कायम है इसलिए ख़तरा अभी पूरी तरह टला नहीं है।  

 

किसानों को फसल की कीमत नहीं मिल रही है। भविष्य में वे कम कीमत पर फसल बेचने को मजबूर होंगे। दैनिक आवश्यकताओं की कीमतें और भी अधिक हो जाएंगी । जमाखोरी  और कालाबाजारी बढ़ेगी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी। परिणामस्वरूप सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर जीवित रहने वाले करोड़ों कामगार, कृषि कामगार, असंगठित क्षेत्र के कामगार, गरीब और भूमिहीन किसान, मध्यम वर्ग के कर्मचारी आदि को भुखमरी का सामना करना पड़ेगा। वे तीन काले कानून किसानों और देश के मेहनतकश लोगों के जीवन में अत्यधिक कठिनाइयों को लाते  । इसलिए किसान सभा और खेत मजदूर यूनियन ने इन काले कानूनों को पूरी तरह से निरस्त करने की मांग की  हमारे देश में, अखिल भारतीय  किसान संघर्ष समन्वय समिति(एआईकेएससीसी ) लगभग 250 छोटे और बड़े किसान संगठनों का एक एकीकृत मंच है। अखिल भारतीय  किसान संघर्ष समन्वय समिति ने पूरे देश में इस आंदोलन का नेतृत्व किया । इसके साथ ही लगभग 200 अन्य किसान संगठन भी इस आंदोलन में शामिल हुए । परिणामतः सभी  संगठन एकजुट होकर संयुक्त किसान मोर्चा के संयुक्त मंच से इस आंदोलन को चलाया। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ इस आंदोलन में पंजाब सबसे आगे रहा । लेकिन यह पूरे देश में किसानों का एकजुट आंदोलन था । इस आंदोलन में पूरे भारत में लाखों किसानो ने भाग लिया । सरकारों ने इस आंदोलन को दबाने के लिए विभिन्न षड्यंत्र रचे। लेकिन किसानों ने सभी बाधाओं को पार कर लिया और दिल्ली जाने के लिए एक अभियान का आयोजन किया । सरकारों ने कई बर्बर हमले शुरू कर उन्हें रोकने की कोशिश की। लेकिन लाखों किसानों ने कई बाधाओं को पार कर दिल्ली की ओर मार्च किया । दिल्ली की सीमाओं पर सरकार द्वारा खड़ी की हुई बाधाओं के कारण किसान दिल्ली सीमा पार के पांच राष्ट्रीय राजमार्गों पर बैठ गए।  चरम सर्दियों में वे लगभग शून्य डिग्री तापमान पर राजमार्ग पर बैठे रहे । लगातार होती बारिश ने उनकी परेशानियों को चरम पर पहुंचा दिया। 700 से अधिक प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी  । लेकिन फासीवादी, अमानवीय, अलोकतांत्रिक मोदी सरकार उनकी मांगों को  मानने से इनकार करती रही। 

 

इसके बावजूद किसान इस बात पर अड़े रहे कि अगर उनकी मांगें पूरी नहीं हुई तो वे घर नहीं लौटेंगे। यह आंदोलन आजादी के बाद भारत का सबसे बड़ा किसान आंदोलन  है। यह आंदोलन सबसे बड़ा अहिंसक, शांतिपूर्ण आंदोलन भी है। यह आंदोलन एक ऐतिहासिक लोकतांत्रिक आंदोलन है। देश भर में लाखों लोगों ने इसका समर्थन किया । खासतौर पर मजदूर वर्ग ने आंदोलन को पूरा समर्थन दिया है। सीआईटीयू शुरू से ही इस आंदोलन में है और किसानों की मांगों को मजदूरों की मांगों से जोड़कर आंदोलन करता रहा है। दस केंद्रीय श्रमिक संगठनों ने संयुक्त रूप से आंदोलन का समर्थन किया और श्रमिक वर्ग से सीधे आंदोलन में भाग लेने का आह्वान किया । कई कर्मचारी संघ, सामाजिक  संगठन, महिलाएं, छात्र, युवा आदि इस आंदोलन का पूरा समर्थन करते रहे हैं। वामपंथी प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों, कवियों, नाटककारों,  अभिनेताओं  आदि ने पूरे दिल से आंदोलन का समर्थन किया है । इसलिए किसान संगठन इस समर्थन और एकजुटता के लिए आभार व्यक्त करते हैं । विशेष रूप से श्रमिक वर्ग का समर्थन हमारे लिए शक्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत रहा । मजदूर नियमित रूप से हमारे संघर्षों में भाग लेते रहे और हमारे पक्ष में जनमत जुटाते हुए समर्थन  में भाग लेते रहे । दिल्ली और कई राज्यों में किसानों के समर्थन में बड़ी रैलियां और जुलूस आयोजित किए गए।  वे आंदोलन के लिए  पैसे जुटाने और हमारी मांगों के समर्थन में पर्चे वितरित करने का काम भी करते रहे । । 25 सितंबर -प्रतिरोध दिवस- के दिन हजारों कार्यकर्ताओं ने किसानों द्वारा बुलाए गए विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया । बाद  में 8  दिसंबर को आयोजित  भारत बंद में मजदूर वर्ग ने भी अहम भूमिका निभाई थी।

 

इसलिए, मेहनतकशों के संघर्षों का निर्माण मजदूर किसान एकता की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान है। हमें  इस संयुक्त संघर्ष को और मजबूत करने  की जरूरत है ।

 

ईमानदारी से प्रयासों की आवश्यकता 

 

अंत में यह कहा जा सकता है कि मजदूर-किसान गठबंधन एक ऐतिहासिक राजनीतिक मोर्चा है जिसकी जिम्मेदारी  मजदूरों और किसानों की क्रांति को संगठित करने की होगी ।  मजदूर वर्ग के नेतृत्व में यह गठबंधन मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण से मुक्त समाज की स्थापना का सबसे प्रभावी साधन होगा । समाजवाद एक सभ्य, मानवीय और शोषण से मुक्त  समाज है – और इसे स्थापित करना हमारा अंतिम लक्ष्य है। इस देश के मेहनतकश लोग लंबे समय से  एक मजबूत पूंजीवाद विरोधी, सामंतवाद विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हैं । इसलिए इस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए मजदूर-किसान गठबंधन का निर्माण होना जरूरी है। यह वर्ग संघर्ष पर आधारित वर्गीय मोर्चा है और इन दोनों बुनियादी वर्गों की एकता का निर्माण मजदूर वर्ग के नेतृत्व  में किया जाएगा।

इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इन दोनों वर्गों के सभी लोगों को अपने-अपने वर्ग के संगठनों में संगठित करें और लंबे संघर्ष के जरिए उनका गठबंधन बनाएं। यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम एक संयुक्त मेहनतकश वर्ग के अंतिम लक्ष्य को हासिल करने के लिये पूरी ईमानदारी से प्रयास करें। 

 

हन्नान मौल्ला अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हैं।

 

हिंदी अनुवाद: बादल सरोज