कारपोरेट बनाम को-आपरेटिव माडल पर एक नई पुस्तक: ‘कॉफी हमारी आजीविका है’

मजदूरकिसानों के खुरदरे हाथों से गुजरते हुए लाजवाब महक लिए जो  कॉफी कोमल होठों को छूकर जब एक खास किस्म का स्वाद प्रदान करती है तो चुस्की लेने वाले के जहन में ज्यादा से ज्यादा नेस्केफे, लिप्टन, नेस्ले इत्यादि वाली कंपनियों के विज्ञापनों की टी वी तस्वीर उभर सकती है। ऐसे विज्ञापन जिनमें एक उच्च मध्यम वर्गीय दम्पति इसलिए आनंदित दिखते हैं क्योंकि उनके हाथों मे एक खास ब्रांड की  कॉफी का कप रहता है। बागानों से चलकर कॉफी टेबल तक के इस सफर में कौन हैं जो सदियों से कॉफी  का उत्पादन करते हुए भी न्यूनतम स्तर के गरिमामयी जीवन से भी वंचित हैं और वो कौन हैं जो इंस्टैंट कॉफी के व्यापार से मालामाल हो रहे हैं। इन दो मुखालिफ तबकों की सिर्फ यही नियति होनी लाजमी है या इसकी कोई वैकल्पिक तस्वीर की कल्पना भी हो सकती है? इस सवाल के भीतर कई और सवाल हैं जिनके जवाब देते हुए पी। सुदंरैया मेमोरियल ट्रस्ट प्रकाशन ने हाल ही मे एक पुस्तक प्रकाशित की है। अंग्रेजी में छपी इस पुस्तक का शीर्षक है ’’कॉफी इज आवर लाईवलिहुड’’(कॉफी हमारी आजीविका है)

उपरोक्त पुस्तक कॉफी के उत्पादन, विनिर्माण और मार्किटिंग की प्रक्रियाओं के उत्पादन औरअर्थतंत्र से संबंधित गंभीर लेखों का संकलन है। परंतु इसकी एक खासियत यह भी है कि अन्य तमाम फसलों कृषि उत्पादनों के मामले में भी इस पुस्तक की सामग्री उतनी ही प्रासंगिक है।
अखिल भारतीय किसान सभा द्वारा फसल आधारित लामबंदी की कार्यनीति अपनाए जाने के बाद जिस प्रकार डेयरी क्षेत्र, सेब, कपास, गन्ना आदि किसानों के संघ बनाए जाने की शुरूआत की गई है उसी दिशा में कॉफी किसानों और मजदूरों को अलग से संगठित करने की पहल हुई है।

उपरोक्त पुस्तक इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। कॉफी उत्पादन में भारत दुनिया में 7वें और निर्यात में छठे स्थान पर है। 466 लाख हैक्टेयर में फैले कॉफी बागान पर 392 लाख परिवार इसमें लगे हैं और 2021-22 में कुल 58 लाख बैग कॉफी का उत्पादन है। भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार 99 प्रतिशत काश्तकार छोटे किसान हैं जो 75 प्रतिशत कॉफी क्षेत्र पर काश्त करते हैं और 70 प्रतिशत उत्पादन करते हैं।

कॉफी का उत्पादन भारत के मुख्यतः तीन प्रदेशों में ही होता है  ये हैंः कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल। केरल में कुल उत्पादन का 23 प्रतिशत उत्पादन है जो कि अकेले वायानाड जिला में ही सीमित है।

भारत में कॉफी की उत्पत्ति की कहानी अत्यंत रोचक है जिसका उल्लेख पुस्तक में भी है। 16वीं सदी के सूफी संत बाबा बुडन  यमन गए थे जहां कॉफी होती थी। परंतु वहां से कॉफी की हरी बीन (बीज) बाहर ले जाने पर कड़ी पाबंदी थी। अलबत्ता भुनी हुई कॉफी बीन पर ऐसी रोक नहीं थी क्योंकि वह उगाई नहीं जा सकती। बाबा बुडन सात बीज अपनी दाढी मे छुपाकर भारत लाए थे उन्होंने चिकमगलूर (कर्नाटक) की पहाड़ी पर इन्हें उगा दिया। इसी से दक्षिण के इलाकों में कॉफी का उत्पादन बताया जाता है। वैसे बाबा बुडन का नाम का। हरकिशन सिंह सुरजीत से सुनने को मिला था। कर्नाटक के चिकमगलूर में बाबा बुडन गिरी का मशहूर मुकाम एक पहाड़ी पर स्थित है जिसे हिंदू और मुस्लिम दोनों मानते आए हैं। विश्व हिन्दू परिषद और उससे जुड़े संगठनों ने इस पर विवाद छेड़कर दंगे करवाने की कोशिशें विगत में कई बार की हैं। इस संदर्भ में का। सुरजीत ने लिखा था कि बाबा बुडन धर्म निरपेक्षता के बहुत बड़े प्रतीक रहे हैं जिनका फलसफा मजहब की कट्टरता के खिलाफ एक सशक्त संदेश देता है।

बहरहाल कॉफी का ताल्लुक अरब से तो अवश्य ही है क्योंकि दो तरह की कॉफी भारत में होती है जिनमें एक अरेबिका तथा दूसरी रोबस्टा के नाम से जानी जाती है।

पुस्तक का पहला चैप्टर (लेख) पी। कृष्ण प्रसाद का है जिसमें उन्होंने कॉफी उत्पादन वाले किसानों और कॉफी मजदूरों की दशा की विस्तृत पृष्ठभूमि का अवलोकन करते हुए केरल के वायानाड में उनके संगठन बनने की प्रारंभिक अवस्थाओं बारे बताया है। कॉफी उत्पादन को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासन में 1942 में कॉफी बोर्ड एक्ट का गठन किया गया ताकि कच्चा माल प्रयाप्त मात्रा में उपलब्ध हो सके और इंगलैंड की कम्पनियां उसे पीस कर पक्का माल बनाकर भारी मुनाफे कमा सकें। लेकिन आजादी के पश्चात बोर्ड की नौकरशाही और उसकी उदासीनता से असंतुष्ट किसानों को प्राईवेट एजेसियों ने प्रलोभन दिए और वे उनके जाल में फंसने लगे जिसको लेकर किसान सभा और शीर्ष वाम नेताओं ने उन्हें आगाह भी किया।

इस लेख मे बताया गया है कि किस प्रकार 1999 के बाद नवउदारीकरण के दौर में हरी बीन कॉफी के रेट 60 रू। प्रति किलो से निजी कम्पनियां ने 90-120 रू। कर दिए जिससे किसानों को लालच दिया गया। परंतु मात्र दो साल में ही यह 24 रू। प्रति किलो तक रेट गिर गए। 90 रू। प्रति किलो के हिसाब से 25 किलो हरी बीन से 1 किलो इंस्टैंट कॉफी बनती है जिसकी कीमत 450 रू। से 900 रू। थी परंतु 24 रू।  के रेट से 15 साल बाद 1400-3000/- प्रतिकिलो पक्का माल बनने लगा। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और देशी इजारेदारों ने किसानमजदूरों को कर्ज के फंदे में धकेल दिया और बड़ी संख्या में वायानाड में आत्महत्याएं हुई।

2006-2011 के दौरान वाम जनतांत्रिक मोर्चा की सरकार ने कर्जा मुक्ति बोर्ड बनाकर 41,411 परिवारों को राहत प्रदान की तब जाकर आत्महत्याएं रूकी।

इस संदर्भ में विकल्प के तौर पर उत्पादकों और उपभोक्ताओं की सहकारिता के रास्ते पर चलकर ब्रह्मगिरी विकास समिति बनने के बाद के अनुभवों को इसमें केंद्रीय तौर पर रखा गया है।

कोआप्रेटिव के इस विकल्प के माडल की अगले चैप्टर में निधीश जे। विल्लट द्वारा विस्तार से व्याख्या की गई है। वो सशक्त तथ्यों तर्कों के साथ बताते हैं कि कारपोरेटों की बड़ी पूंजी वाले कंशोर्सियम के मुकाबले तमाम छोटेछोटे किसान और मजदूर संघ अपने उत्पादन साधनों को मिलाकर विशाल पैमाने पर सामूहिक उत्पादन करने के लिए नई तकनीक और मार्किटिंग की आधुनिक प्रणालियों को अपनाते हुए अपने विशाल समूह से कार्पोरेट का मुकाबला करने में सक्षम हो सकते हैं। इस संबंध में निधीश ने मार्क्स की पूंजी (दास कैपिटल )के तीसरे खंड से उद्धर्ण देते हुए कोआपरेटिव पद्धति की समकालीन प्रासंगिकता और वैद्यता को विश्वसनीय ढ़ंग से  प्रस्तुत किया है। वित्तीय पूंजी की सरपरस्ती में इजारेदार पूंजी का समूह इसी आक्रामकता के साथ किसानों  को निचोड़ रहा है। सस्ते दामों पर कच्चे माल के रूप में फसलों की लूट करके पक्के माल को मनमाने दामों में बेचकर असीमित मुनाफा बटोरना जनता और कारपोरेट के बीच प्रमुख अंतर्विरोध के तौर पर सामने गया है।

इस शोषण के विरूद्ध किसानों की सहकारिता पर आधारित सामूहिक उत्पादन प्रणाली तीसरी दुनिया के विकासशील देशों की जनवादी क्रांति के चरण की एक कारगर रणनीति के तौर पर अपनाए जाने की क्षमता रखती है। स्थानीय स्तर पर सरकारी प्राथमिकता के साथ कच्चे से उच्च गुणवत्ता का पक्का उत्पाद तैयार करने में मूल्य संवर्धन क्यों नहीं हो सकता जिसका उपभोग करना आम आदमी के बूते में भी हो।

उल्लेखनीय है कि कॉफी का उत्पादन करने वाले तो विकासशील देश हैं परंतु इसकी खपत सबसे ज्यादा विकसित साम्राज्यवादी देशों में होती है। महामुनाफा भी साम्राज्यवादी पूंजी बटोर रही है।स्टार बककॉफी कंपनी के मालिक हार्वर्ड शुल्ज की संपत्ति 2022 मे 27 हजार करोड़ रु थी। 84 देशों में इस कंपनी के 34630 स्टोर थे। पिछले वर्ष कंपनी की राजस्व प्राप्ति 231 लाख करोड़ थी। दैनिक भास्कर अखबार (9 सितंबर 2022)  उनकी तारीफ मे लिखता है कि वे अपने कर्मचारियों को पार्टनर कहते हैं। लेकिन कॉफी उत्पादक किसानों की बदहाली किसी से छिपी हुई नहीं है। जाहिर है कि छप्परफाड़ मुनाफे को शेयर करने मे किसान मजदूरों का कहीं नाम तक नहीं।इस प्रकार कोऑपरेटिव  का स्वरूप भी अनिवार्य रूप से साम्राज्यवाद विरोधी ही है।

इस संबंध में वाणिज्य मंत्रालय की संसदीय समिति  की 2012 की 102वीं रिपोर्ट का हवाला दिया गया है जिसमें चाय कॉफी बागान के लिए छोटे किसानों की कोऑपरेटिव उत्पादन प्रणाली की सिफारिश की गई थी।

उन्होंने स्वयं किए गए अध्ययन के आधार पर बताया कि 2021-22 में 4 एकड़ के किसान की वायानाड में मासिक आय मात्र 3375 रू थी। यही स्थिति अन्य छोटे किसानों की थी।

वायदा व्यापार जैसी कुख्यात सट्टाबाजारी और अन्य तरह की हेरा फेरी के तरीकों से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और देशी इजारेदार पूंजी कैसे कॉफी मूल्यों और तमाम कृषि उत्पादों के मूल्यों को उपरनीचे करने की ताकत रखते हैं इसका विस्तार से वर्णन किया गया है।

यहां सेब का उदाहरण प्रासंगिक हो जाता है हिमाचल प्रदेश में सेब उत्पादक किसानों से 60रू। प्रति किलो से खरीदकर उसे दिल्ली में आज 491रू। प्रति किलो के भाव से बेचा जा रहा है। एक और ताजा उदाहरण बासमती चावल की 1507 किस्म का मंडी में रेट इसी सितंबर महीने के पहले हफ्ते में 3700 रु प्रति क्विंटल था। परंतु मात्र एक सप्ताह बाद मंडियों में फसल की आवक बढते ही 600रु घटकर 3100रु प्रति क्विंटल पर गया। उल्लेखनीय है कि बासमती धान न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा जाता। कमोवेश यही स्थिति अन्य सभी कृषि या डेयरी उत्पादों की बनी हुई है।

आज भारत में अडानी और अंबानी इजारेदार पूंजी के शिखर पर हैं और साम्प्रदायिक भाजपा /आर।एस।एस। की वर्तमान सत्ता शर्मनाक ढंग से इन्हें संरक्षण प्रदान कर रही है। आज इन इजारेदार कारपोरेटों के फलने फूलने का रहस्य और कुछ नहीं बल्कि 90 प्रतिशत उत्पादक और उपभोक्ता की भूमिका में देश के मेहनतकश लोग ही हैं जिनके श्रम और उत्पादन की नंगी लूट का प्रबंध मोदी शासन सुनिश्चित कर रहा है। इनके पास जो पूंजी संग्रह हुआ है वह बैंकों में जमा जनता का धन है और सार्वजनिक क्षेत्र की राष्ट्रीय संपदा को इनके हवाले किया गया है वह भी जनता की है। ये दरबारी पूंजीवाद का अश्लीलतम रुप है।

पुस्तक में पी। कृष्ण प्रसाद निधीश के पेपरों समेत कुल 11 अलेख हैं। इनमें डा। अश्विनी कुमार बीजे, बी। शिवकुमार स्वामी, डा। आई। आर। दुर्गाप्रसाद, धर्मेश, डेवी चेरीमुला, नमीता मधुमार (लक्ष्मी एस, जयकुमार सी), पी। सुरेश, जुबुनू के।आर। के शोध आधारित पर्चें हैं। इन पर्चों को एकमुश्त तौर पर जोड़ दें तो यह कॉफी के उत्पादन, विपणन और मार्किटिंग के मामलों में एक समग्र संकलन बनता है।

देश के सभी महानगरों मे चल रहे प्रतिष्ठा प्राप्त इंडियन कॉफी हाऊस श्रंखला के हजारों कर्मचारियों का मजबूत संगठन है जिसकी बदौलत सरकार अभी तक इन प्रतिष्ठानों को बेच नहीं पाई है आप नोट कर सकते हैं कि इंडियन कॉफी हाऊस के काऊंटरों  पर का। ए। के। गोपालन की तस्वीर लाजिमी तौर पर मिलेगी। उल्लेखनीय है कि का। गोपालन कॉफी उत्पादक किसानों के संगठन की शुरुआत करने वालों मे तो थे ही साथ मे कॉफी हाऊस कर्मचारी यूनियन के संस्थापक अध्यक्ष  भी थे ।दिल्ली के कनाट प्लेस मे बाबा खड़क सिह मार्ग पर स्थिति मोहनसिंह प्लेस (जो जींस की पैंट तुरंत तैयार करने के लिए भी जाना जाता है ) की ऊपरी मंजिल पर स्थित इंडियन कॉफी हाऊस की खुली टैरेस दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकारों, नामचीन लेखकों, बुद्धिजीवियों और खास तरह के राजनीतिक लोगों का दशकों से सांयकाल को लगने वाली स्थाई कॉफी महफिल का एक मशहूर सामूदायिक स्थल है।

विगत 60 साल से चल रहे इस कोआपरेटिव प्रतिष्ठान को मैकडानल फास्ट फूड को देने की कोशिशें हुई थी। यहां कॉफी पर जुड़ने वाली बुद्धिजीवी कम्युनिटी ने भी सशक्त प्रतिरोध किया था इसे उत्पादन करने वाले किसान मजदूरों, कॉफी हाऊस कर्मचारियों और उपभोक्ताओं की एकजुटता के एक उदाहरण की तरह देखा जाना चाहिए।

पुस्तक के अंत मे कॉफी फार्मरस फैडरेशन ऑफ इंडिया की भावी कार्य योजना और मांगपत्र के अलावा डा। वीजू कृष्णन का एक संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण लेख है। 120 पृष्ठों की इस पुस्तक में जनपक्षीय विकल्प के सारगर्भित संबोधन की प्रस्तुति है।

दरअसल  कॉफी उत्पादन की मौजूदा प्रणाली के रहते केवल किसान मजदूर कारपोरेट शोषण के शिकार रहेंगे बल्कि कॉफी का उपभोग भी संभ्रांत और कुलीन वर्ग तक ही सीमित रहेगा। क्यों ना कॉफी को आम आदमी के उपभोग के दायरे में लाने का लक्ष्य लेकर उगाने से उपभोग तक को जनपक्षीय प्रणाली की ओर नियोजित किया जा सकता।

पुस्तक उन सभी किसानों को समर्पित है जो  नवउदारीकरण की नीतियों की मार झेलते हुए शहीद हो गए। यह सुनिश्चित करना सबका कर्तव्य है कि इन विनाशकारी नीतियों के विकल्प के लिए शक्तिशाली जनांदोलन खड़े करें ताकि शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ जाए।

(कामरेड इंदरजीत सिंह)

 

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