‘राम मंदिर नहीं कृषि संकट होगा 2019 लोकसभा चुनाव का मुद्दा, फसल बीमा योजना 100% फ्रॉड’
राष्ट्रीय राजधानी में हाल में किसानों की जबरदस्त रैली देखने को मिली. यह रैली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) के बैनर तले 29-30 नवंबर को आयोजित की गई थी और इसे किसान मुक्ति मार्च नाम दिया गया. अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले 200 से ज्यादा किसान यूनियन और एनजीओ शामिल हैं. इस समिति में अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) प्रमुख संगठन था, जिसने 15 सूत्री मांगों के जरिए किसानों के मुद्दों को पेश किया.
अखिल भारतीय किसान सभा देश की प्रमुख वामपंथी पार्टी सीपीएम से सम्बद्ध है. इस किसान संगठन ने 23 दिनों में चार लंबे मार्च के जरिए 18,000 किलोमीटर से भी ज्यादा की यात्रा और 2016 से अब तक 400 से ज्यादा रैलियों का आयोजन कर कृषि संबंधी संकट को लेकर किसानों के बीच जागरूकता फैलाने का प्रयास किया है.
अखिल भारतीय किसान संगठन के महासचिव, सीपीएम के पोलित ब्यूरो सदस्य और पश्चिम बंगाल से 8 बार सासंद रहे हन्नान मुल्ला ने फ़र्स्टपोस्ट को दिए इंटरव्यू में बताया कि 2019 के लोकसभा चुनावों में राम मंदिर नहीं बल्कि कृषि संकट बड़ा मुद्दा होगा, क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को इसकी मूल भावना और उद्देश्य के साथ लागू करने के अपने वादे पर खरा नहीं उतरी है.
साथ ही, सरकार उचित ढंग से किसानों का कर्ज माफ करने का वादा पूरा करने में भी नाकाम रही. उनका यह भी कहना था कि फसल बीमा का मामला 100 फीसदी फ्रॉड है और इससे पिछले 4 साल में किसानों की खुदकुशी की दर बढ़कर 42 फीसदी हो गई है. पेश हैं इस बातचीत के अंशः
सवाल: कृषि संकट की मूल वजह क्या है?
जवाब: इस संकट की मूल वजह भूमि सुधार लागू करने में सरकार का नाकाम रहना है. आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भूमि सुधार का वादा करने के बावजूद इसे लागू नहीं किया. हरित क्रांति को शुरू करने से सिर्फ सीमित संख्या में मौजूद बड़े और अमीर किसानों को फायदा हुआ. भूमिहीन किसानों के पास बिल्कुल भी क्रय शक्ति नहीं था.
उत्पादन ज्यादा था, लेकिन क्रय शक्ति कम थी. पिछले 70 साल में कृषि नीति कभी भी किसान के अनुकूल नहीं रही और इसकी वजह से बिचौलियों का उभार हुआ. कृषि उत्पादों की खरीद का उचित सिस्टम नहीं होने के कारण इन बिचौलियों ने किसानों से काफी कम कीमत पर कृषि संबंधी उत्पादों को खरीदा. इन वजहों के कारण आखिरकार खेती घाटे का काम हो गया है और किसानों के बेटे अब यह काम नहीं कर रहे हैं.
सवाल: क्या आपको लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में कृषि संकट प्रमुख मुद्दा होने जा रहा है?
सवाल: हम कृषि (जो कि राष्ट्रीय एजेंडा है) को 2019 का चुनावी एजेंडा बनाएंगे. किसान भिखारी नहीं हैं. हमने 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस समेत 21 राजनीतिक पार्टियों से अपने-अपने घोषणापत्र में साफ तौर पर कृषि के मुद्दे का जिक्र करने की अपील की है. उन्होंने यह भी बताना होगा कि अगर उनकी पार्टी सरकार बनाती है तो इस संकट को दूर करने के लिए उनकी तरफ से क्या कदम उठाए जाएंगे. किसान अब जागरूक ताकत बन रहे हैं. हम चुनावों में राम मंदिर नहीं बल्कि कृषि संकट के मुद्दे को अहम बनाना चाहते हैं. हमारा मकसद ‘अयोध्या’ नहीं बल्कि ‘दिल्ली चलो’ है.
सवाल: देशभर के किसान नाराज क्यों हैं?
जवाब: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत विभिन्न सरकारों द्वारा दशकों से लंबे-चौड़े वादों और आश्वासनों के बावजूद किसानों के हित के लिए कुछ नहीं किया गया है और उनकी दिक्कतें कायम हैं. साल 2014 (जिस वक्त मोदी सत्ता में आए) में मोदी ने चार वादे किए थे-स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों का लागू करना, किसानों की कर्ज माफी, फसल बीमा और किसानों की खुदकुशी को रोकना. हालांकि, सरकार अपने इन वादों से पीछे हट गई. किसानों की कर्ज माफी के मामले में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गेंद राज्यों के पाले में डाल दी.
प्राकृतिक आपदाओं के कारण खेती और फसलों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मौजूद प्रणाली दोषपूर्ण है. हर दूसरे साल किसानों को सूखे और बाढ़ जैसी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. फसल बीमा योजना पूरी तरह से फर्जीवाड़ा है. पिछले खरीफ सीजन के दौरान देश के किसानों ने फसल बीमा योजना के तहत 24,000 करोड़ रुपए का प्रीमियम दिया, लेकिन उन्हें सिर्फ 8,000 करोड़ रुपए मिले और 6 प्राइवेट बीमा कंपनियों ने बाकी 16,000 करोड़ रुपए अपनी जेब में रख लिए.
संस्थागत कर्ज प्रणाली में किसी तरह का विकास या बेहतरी नहीं आई है. अब भी 60 फीसदी किसान, विशेष तौर पर गरीब, छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसानों को बैंकों से आसानी से कर्ज नहीं मिल पाता है और इस वजह से वे राजनीतिक रूप से भी ताकतवर सूदखोरों की गिरफ्त में चले जाते हैं.
ये महाजन बैंक के 8 फीसदी सालाना ब्याज की बजाय 20 से 60 फीसदी तक की ऊंची दर से किसानों से कर्ज पर ब्याज वसूलते हैं. बैंकों के कृषि से संबंधित कर्ज का बड़ा हिस्सा अमीरों के एग्रीबिजनेस को मिलता है.
यह किसानों की खुदकुशी की बड़ी वजह है, क्योंकि महाजनों-सूदखोरों से ऊंची ब्याज दर पर कर्ज लेने के कारण वे इसके जाल में फंसकर रह जाते हैं. आकड़ें बताते हैं कि हर रोज 52 किसान खुदकुशी करते हैं और अब तक कुल 4 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और इसे रोकने के लिए किसी तरह का उपाय नहीं किया जा रहा है. साल 2014 से अब तक किसानों की खुदकुशी दर में 42 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो चुकी है.
हालांकि हाल में आयोजित किसान रैली में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि गैर-बीजेपी शासित राज्यों ने ही हिस्सा लिया. वाम मोर्चा के शासन में रहे तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व केरल और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर यह समस्या सभी राज्यों में मौजूद है. वाम मोर्चा सरकार की अगुवाई में पश्चिम बंगाल भूमि सुधार लागू करने और किसानों का डेटा बैंक बनाने वाला देश का पहला राज्य था. बाकी राज्यों में अमीर किसानों और जमींदारों के हितों की सुरक्षा की गई है. आज तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल की सरकार के शासन में राज्य में छोटे व सीमांत किसान और खेतिहर मजदूरों की हालत काफी खराब है और इसी वजह से उन्होंने विरोध-प्रदर्शन के लिए आयोजित इस रैली में हिस्सा लिया.
सवाल: सरकार की तरफ से फसलों के न्यूनतम खरीद मूल्य (एमएसपी) में संशोधन के बावजूद किसान नाखुश क्यों हैं?
जवाब: स्वामीनाथन कमेटी ने अपनी सिफारिशों में किसी फसल के न्यूनतम खरीद मूल्य के आकलन के लिए तीन चीजों पर विचार करने और लागत का डेढ़ गुना मूल्य मुहैया कराने की बात कही गई है. पहली चीज इनपुट कॉस्ट है. दूसरी, किसानों के पारिवारिक श्रम की लागत और तीसरी जमीन की लागत, पट्टा, ह्रास आदि की लागत. इसके अलावा सरकार की तरफ से खरीद की सुनिश्चित व्यवस्था करने की भी बात है.
मोदी सरकार ने जिस स्तर पर न्यूनतम खरीद मूल्य का ऐलान किया, उसमें इन तीन चीजों पर विचार नहीं किया गया जो इस मूल्य का 30 फीसदी बैठता है. सरकार की तरफ से पेश किया संशोधित न्यूनतम मूल्य 70 फीसदी का डेढ़ गुना- पहली और दसरी चीज को मिलाकर है. आखिरकार किसान को उस उचित मूल्य से 30 फीसदी कम मिल रहा है, जितना उसे कायदे से मिलना चाहिए था. सरकार का न्यूनतम खरीद मूल्य बड़ा झूठ है.
सवाल: किसानों से जुड़े संगठन कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं, कइयों का मानना है कि यह अर्थव्यवस्था के लिए काफी नुकसानदेह होगा?
जवाब: देखिए, सरकार ने शीर्ष उद्योगपतियों और कॉरपोरेट घरानों के कर्ज माफ किए हैं, लेकिन वह किसानों के लिए ऐसा करने को तैयार नहीं है…हमारे समाज और अर्थव्यवस्था की रीढ़ कौन है. हर साल के आम बजट में उद्योग जगत को छूट के लिए 6 लाख करोड़ का प्रावधान किया जाता है. यह सच है कि अगर हर बार कर्ज माफी की पेशकश की जाए तो यह टिकाऊ नहीं होगा. हम एक बार में सभी किसानों के सभी तरह के कर्ज (बैंक और महाजनों दोनों का) माफ करने की मांग कर रहे हैं.
किसानों की मुश्किलें दूर करने की खातिर एक ही साथ दो चीजें करने की जरूरत है- पहला कर्ज माफ करना और दूसरा स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करना, जिसके तहत सही मायनों में फसल या उत्पाद की कीमत का डेढ़ गुना देने की बात है.
पिछली यूपीए सरकार के शासनकाल में 70,000 करोड़ का कर्ज माफ किया गया, लेकिन किसानों की आय सुनिश्चित करने के लिए किसी तरह का सुधार संबंधी उपाय नहीं किया गया. यह एक तरह का भयंकर दुश्चक्र है. किसान फिर से कर्ज के जाल में फंस जाते हैं.
सवाल: समूचे कार्यबल का 43 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों में काम करता है, जबकि ग्रॉस वैल्यू ऐडेड (जीडीए) में इसका योगदान 17 फीसदी है. यह आंकड़ा सेवा और उद्योग क्षेत्रों के योगदान के मुकाबले काफी कम है. ऐसा क्यों है?
जवाब: ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि कृषि क्षेत्र में कोई निवेश नहीं है. पिछले कई साल के दौरान कृषि और ग्रामीण विकास के मद में बजटीय आवंटन में भारी गिरावट देखने को मिली है. अलग-अलग सरकारों द्वारा कृषि क्षेत्र की उपेक्षा किए जाने के कारण किसानों की आय में गिरावट आई है. सरकार की नीति भारतीय किसानों को मजदूरी के लिए शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर कर रही है. अगर यह सिलसिला जारी रहता है तो अमेरिका की तरह हमारे देश में भी किसानों की संख्या में भारी गिरावट देखने को मिल सकती है. अमेरिका में वहां की कुल आबादी का सिर्फ 2 फीसदी हिस्सा कृषि क्षेत्र में काम करता है.
सवाल: किसानों की 2 दिनों की रैली के बाद आपका अगला कदम क्या होगा?
जवाब: अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति किसानों से हितों से संबंधित दो बिलों को पास करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की खातिर सरकार पर दबाव बनाएगी, जैसा कि सरकार द्वारा जीएसटी बिल के दौरान किया गया था.
संसद के सामान्य शीतकालीन सत्र में यह मुमकिन नहीं होगा, क्योंकि राष्ट्रीय रूप से इस तरह का अहम मुद्दा अन्य मुद्दों और बहस-विवादों में गुम हो जाएगा. ये दोनों बिल किसानों की कर्जमाफी और भविष्य में उन्हें कर्ज के जाल में फंसने से रोकने के लिए सतत संवैधानिक योजना का हिस्सा हैं.
Source: ‘राम मंदिर नहीं कृषि संकट होगा 2019 लोकसभा चुनाव का मुद्दा, फसल बीमा योजना 100% फ्रॉड’